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बीते बुधवार को सुप्रीम कोर्ट की एक खंडपीठ ने कहा कि तलाक़शुदा मुस्लिम महिलाएं भी दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 125 के तहत गुज़ारा भत्ता की मांग कर सकती हैं.
मुस्लिम महिलाओं का भरण-पोषण बीते कई दशकों से विवाद का मुद्दा रहा है.
सुप्रीम कोर्ट ने 1985 में अपने मशहूर 'शाह बानो' के फ़ैसले में ये कहा था कि सीआरपीसी के तहत एक तलाक़शुदा मुस्लिम महिला अपनी दूसरी शादी तक भरण पोषण पा सकती है.
हालांकि, कई मुस्लिम समूहों ने इसका विरोध किया था. उनका कहना था कि ये एक धर्मनिरपेक्ष क़ानून का पर्सनल लॉ पर अतिक्रमण है.
इसके एक साल बाद 1986 में, तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने एक क़ानून बनाया जिसमें तलाक़ के केवल तीन महीने बाद तक गुज़ारा भत्ता को सीमित कर दिया गया. इस क़ानून के आने के बाद से कई बार ये दोहराया जा चुका है कि 1986 का ये क़ानून सीआरपीसी के तहत गुज़ारा भत्ता के अधिकार को रोक नहीं सकता.
क़ानून के जानकारों ने बीबीसी को बताया कि बुधवार के फ़ैसले में भी सुप्रीम कोर्ट ने पुराने क़ानून को दोहराया है. उन्होंने इसका स्वागत करते हुए कहा की इससे लोगों में जागरूकता पैदा होगी और निचली अदालतों में भ्रम दूर होगा.
इसके साथ उन्होंने सीआरपीसी के अन्तर्गत गुज़ारा भत्ता पाने के लिए आने वाली कई समस्याओं के बारे में बताया और ये कहा कि औरतों के लिए भरण-पोषण पाने में कई परेशानियां होती हैं.
कई मुस्लिम एक्टिविस्ट्स ने भी कोर्ट के फ़ैसले की स्वागत किया है. भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की संस्थापक ज़किया सोमान ने इस फ़ैसले को 'प्रगतिशील' बताया है.
उनका कहना है कि कई फ़ैमिली कोर्ट में ये स्प्ष्ट नहीं है कि क्या क़ानून लागू होगा. ज़किया सोमन के अनुसार, "आम लोगों को लगता है कि मुस्लिम महिला को केवल 1986 के क़ानून के तहत भरण पोषण मिलेगा."
ऐसा भी नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से हर पक्ष खुश हो. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के प्रवक्ता डॉक्टर एसक्यूआर इलियास ने कहा, "तलाक़शुदा महिलाओं को आजीवन गुज़ारा भत्ता देने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला शरिया के ख़िलाफ़ है."
उन्होंने कहा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की क़ानूनी टीम इस फ़ैसले का अध्ययन कर रही है और उसके बाद वो अपने विकल्पों पर फ़ैसला लेंगे.
https://www.bbc.com/hindi/articles/crgkz876lljo